Adhyatm Kya Hai अध्यात्म क्या है

Adhyatm Kya Hai अध्यात्म क्या है ?

आध्यात्म शब्द संस्कृत भाषा का है। जिन लोगों को संस्कृत भाषा नहीं भी आती है वो भी इस शब्द का प्रयोग करते हैं क्योंकि यह लगभग हर भारतीय भाषा में वर्णित है। अध्यात्म का व्यापक रूप से अर्थ है परमार्थ चिंतन, लेकिन इस शब्द के मूल में इसके दूसरे अर्थ भी देखना आवश्यक है। यह एक संस्कृत शब्द है। ग्रीक, लेटिन और फारसी की तरह ही संस्कृत भी पुरातन भाषा है। कई पुरातन भाषाओं की तरह ही संस्कृत भाषा में ज़्यादातर शब्द जड़ या मूल से लिए गए हैं।

अध्यात्म शब्द उपसर्ग ‘आधी’ और ‘आत्मा’ का समास है। ‘आत्मा’, आत्मन शब्द का संक्षिप्त रूप है, जो सांस लेने, आगे बढने आदि से लिया गया है। ‘आत्मन’ शब्द का अर्थ आत्मा से है जिसमें जीवन और संवेदना के सिद्धान्त, व्यक्तिगत आत्मा, उसमें रहने वाले अस्तित्व, स्वयं, अमूर्त व्यक्ति, शरीर, व्यक्ति या पूरे शरीर को एक ही और विपरीत भी मानते हुए अलग-अलग अंगों में ज्ञान, मन, जीवन के उच्च व्यक्तिगत सिद्धान्त, ब्राह्मण, अभ्यास, सूर्य, अग्नि, और एक पुत्र भी शामिल है।

अज्ञात परतत्व की खोज, परमात्मा की खोज, परमात्मा के अस्तित्व, उसके स्वरूप, गुण, स्वभाव, कार्यपद्धति, जीवात्मा की कल्पना, परमात्मा से उसका संबंध, इस भौतिक संसार की रचना में उसकी भूमिका, जन्म से पूर्व और उसके पश्चात की स्‍थिति के बारे में जिज्ञासा, जीवन-मरण चक्र और पुनर्जन्म की अवधारणा इत्यादि प्रश्नों पर चिंतन और चर्चाएं की गईं और उनके आधार पर अपनी-अपनी स्थापनाएं दी गईं। इन्हीं के आधार पर पुराणों और अन्य शास्त्रों में व्याख्‍याएं, कथाएं, सूत्र, सिद्धांत लिखे और गढ़े गए।

 

यह भी सही है कि नैतिकता, पवित्र जीवनमूल्य, नकारात्मक कार्यों और विचारों से बचना, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन को आघात पहुंचाने वाले कार्यों को पाप समझना, परोपकार, सत्य, न्याय, कर्तव्यनिष्ठा जैसे शाश्वत मूल्य सदैव अपने जीवन को प्रकाशित करते रहें, इसमें कभी किसी का विश्वास नहीं डिगना चाहिए। यही सच्चा अध्यात्म है।

 

अध्यात्म का अर्थ है अपने भीतर के चेतन तत्व को जानना,मनना और दर्शन करना अर्थात अपने आप के बारे में जानना या आत्मप्रज्ञ होना |गीता के आठवें अध्याय में अपने स्वरुप अर्थात जीवात्मा को अध्यात्म कहा गया है | अध्यात्म क्या है

 

“परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते “

 

आत्मा परमात्मा का अंश है यह तो सर्विविदित है | जब इस सम्बन्ध में शंका या संशय,अविश्वास की स्थिति अधिक क्रियमान होती है तभी हमारी दूरी बढती जाती है और हम विभिन्न रूपों से अपने को सफल बनाने का निरर्थक प्रयास करते रहते हैं जिसका परिणाम नाकारात्मक ही होता है |

 

अध्यात्म की अनुभूति सभी प्राणियों में सामान रूप से निरंतर होती रहती है |

 

परमात्मा के असीम प्रेम की एक बूँद मानव में पायी जाती है जिसके कारण हम उनसे संयुक्त होते हैं किन्तु कुछ समय बाद इसका लोप हो जाता है और हम निराश हो जाते हैं,सांसारिक बन्धनों में आनंद ढूंढते ही रह जाते हैं परन्तु क्षणिक ही ख़ुशी पाते हैं |

 

जब हम क्षणिक संबंधों,क्षणिक वस्तुओं को अपना जान कर उससे आनंद मनाते हैं,जब की हर पल साथ रहने वाला शरीर भी हमें अपना ही गुलाम बना देता है | हमारी इन्द्रियां अपने आप से अलग कर देती है यह इतनी सूक्ष्मता से करती है – हमें महसूस भी नहीं होता की हमने यह काम किया है ?

 

जब हमें सत्य की समझ आती है तो जीवन का अंतिम पड़ाव आ जाता है व पश्चात्ताप के सिवाय कुछ हाथ नहीं लग पाता | ऐसी स्थिति का हमें पहले ही ज्ञान हो जाए तो शायद हम अपने जीवन में पूर्ण आनंद की अनुभूति के अधिकारी बन सकते हैं |हमारा इहलोक तथा परलोक भी सुधर सकता है |

 

अब प्रश्न उठता है की यह ज्ञान क्या हम अभी प्राप्त कर सकते हैं ? हाँ ! हम अभी जान सकते हैं की अंत समय में किसकी स्मृति होगी, हमारा भाव क्या होगा ? हम फिर अपने भाव में अपेक्षित सुधार कर सकेंगे | गीता के आठवें अध्याय श्लोक संख्या आठ में भी बताया गया है

 

यंयंवापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् |

 

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भाव भावितः ||

 

अर्थात-“हे कुंतीपुत्र अर्जुन ! यह मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, उस-उस को ही प्राप्त होता है ;क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहता है |”

 

एक संत ने इसे बताते हुए कहा था की सभी अपनी अपनी आखें बंद कर यह स्मरण करें की सुबह अपनी आखें खोलने से पहले हमारी जो चेतना सर्वप्रथम जगती है उस क्षण हमें किसका स्मरण होता है ? बस उसी का स्मरण अंत समय में भी होगा | अगर किसी को भगवान् के अतिरिक्त किसी अन्य चीज़ का स्मरण होता है तो अभी से वे अपने को सुधार लें और निश्चित कर लें की हमारी आँखें खुलने से पहले हम अपने चेतन मन में भगवान् का ही स्मरण करेंगे |बस हमारा काम बन जाएगा नहीं तो हम जीती बाज़ी भी हार जायेंगे |

 

कदाचित अगर किसी की बीमारी के कारण या अन्य कारण से बेहोशी की अवस्था में मृत्यु हो जाती है तो दीनबंधु भगवान् उसके नित्य प्रति किये गए इस छोटे से प्रयास को ध्यान में रखकर उन्हें स्मरण करेंगे और उनका उद्धार हो जाएगा क्योंकि परमात्मा परम दयालु हैं जो हमारे छोटे से छोटे प्रयास से द्रवीभूत हो जाते हैं |

 

अध्यात्म क्या है आध्यात्म का अर्थ व्यक्तिगत या खुद का स्वभाव होता है, जो हर शरीर में सर्वोच्च भाव के रूप में ब्राह्मण की तरह रहता है। इसका अर्थ, जो अस्तित्व के स्वयं के रूप में शरीर में निवास करती है, आत्मा, वह शरीर को उसके रहने के लिए अधिकृत करती है और जो परम विश्लेषण का उच्च स्तर है। अध्यात्म भी ज्ञान अर्जित करता है जो आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता और आखिरकार मोक्ष या मुक्ति तक ले जाता है। यह ज्ञान अध्यात्म से संबन्धित है, जो स्वयं से तो संबन्धित है ही साथ ही स्वयं और दूसरी आत्मा के बीच के संबंध से भी संबन्धित है। अध्यात्म, आत्मा के ज्ञान से संबन्धित है, और जिस रास्ते पर चलकर ये प्राप्त हो सकता है, वह ज्ञान अनंत है। अध्यात्म का अर्थ उस ब्राह्मण के बारे में बताना है, जो परम सच्चाई है। शास्त्रों के पढ़ने और किसी के आत्मा के स्वभाव को समझना ही अध्यात्म कहलता है। इसका अर्थ भगवान के सामने आत्म समर्पण करना और अपने अहंकार को तिलांजलि देना है।

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